Jain Aagam Sutrakritanga - सूत्रकृतांग - Hindi
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प्रेरक : मरुशर रत्न पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसृरिजी म.सा.
द्वादशांगी में दूसरा अंग-श्री सूत्रकृतांग सूत्र । इसे प्राकृत भाषा में सूयगडं नाम से जाना जाता है ।
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पूर्व काल में यह सूत्र 36000 पद प्रमाण था, वर्तमान में यह आगम मूल सूत्र में मात्र 2100 श्लोक प्रमाण विद्यमान है । इस आगम में 82 गद्यात्मक सूत्र और 732 श्लोक हैं । इस सूत्र पर चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहु स्वामीजी द्वारा रचित 205 श्लोक प्रमाण निर्युक्ति हैं, पूज्य आचार्य श्री शीलांकाचार्यजी मह्दराज द्वारा रचित 12850 श्लोक प्रमाण बृद्धवृत्ति (टीका) है, तथा अज्ञात पूर्वाचार्य के द्वारा रचित 9900 श्लोक प्रमाण चूर्णि है । इसके अतिरिक्त पूज्य आचार्य श्री भुवनसूरिजी के शिष्य उपाध्याय श्री साधुरंग महाराज द्वारा रचित सम्यक्त्व दीपिका नाम की 10,000 श्लोक प्रमाण टीका है एवं पूज्य आचार्य श्री हेमविमलसूरिजी के शिष्य पूज्य हर्षकुल गणि द्वारा रचित दीपिका नाम की 6600 श्लोक प्रमाण टीका है । कुल मिलाकर इस आगम संबंधी 41750 श्लोक प्रमाण साहित्य उपलब्ध है ।
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इस आगम में दो श्रुतस्कंध है ।
- इस आगम में दो श्रुतस्कंध है ।
- पहले श्रुतस्कंध के 16 अध्ययन
- दूसरे श्रुतस्कंध के 7 अध्ययन
इन 23 अध्ययनों के नाम और संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
पहले श्रुतस्कंध के 16 अध्ययन
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समय
इस अध्ययन में धर्म, मोक्ष, पुण्य-पाप, स्वर्ग, नरक आदि को नहीं मानने वाले नास्तिक मतों का खंडन किया है । इस अध्ययन में 4 उददेश और 88 श्लोकों से आत्प जागृति का उपदेश दिया है । -
वैतालीय
इस अध्ययन की रचना वैतालिय छंद में है । इसमें 76 श्लोक द्वारा श्रीऋषभदेव भगवान ने अष्टपद तीर्थ पर 98 पुत्रों को बैराग्यमय उपदेश दिया है । -
उपसर्ग परिज्ञा
इस अध्ययन में उपसर्ग के समय घैर्य रखने की प्रेरणा दी है । उपसर्गों को समतापूर्वक सहन कर विजय प्राप्ति का उपदेश दिया है । -
स्त्री परिज्ञा
22 परीषदों में से स्त्री परीषह पर बिजय पाना अत्यंत कठिन है । स्त्री परीषह जीतने से होने वाले लाभ और हारने से होने वाले नुकसान का वर्णन किया है । -
नरक विभक्ति
प्रारंभ में आर्य और अनार्य जन का भेद बताकर इस अध्ययन में नरक के मुख्य दो कारण उपसर्ग भीरुता और स्त्री परवशता-बताया है । पहली तीन नरकों में होने वाली परमधामी कृत बेदना और शेष नरकों में क्षेत्र कृत वेदना का वर्णन किया है । -
महावीर स्तुति
इस अध्ययन में शासनपति भगवान महावीर की स्तवना की गई है । पर्वतों में श्रेष्ठ ऐसे सुमेरु पर्वत के समान गुणों में सर्वश्रेष्ठ भगवान महावीर से तुलना की गई है । -
कुशील परिभाषित
यज्ञ आदि प्रवृति को मोक्ष मार्ग मानने वाले, छ काय के जीवों की हिंसा में प्रवृतत जीव शिथिल आचारी है । ऐसे कुशील-शिथिल आचारी का वर्णन किया गया है । -
वीर्य
जैन शासन में बताई आराधना में अपने वीर्य-बल को सार्थक करने की सुंदर प्रेरणा इस अध्ययन में दी है । इस अध्ययन में बीर्य के अनेक भेद बताए है-1) कर्म वीर्य और अकर्मवीर्य-प्रमत्त जीवों को कर्मवीर्य और अप्रमत्त जीवो का अप्रमत्त वीर्य । 2) बालवीर्य और पंडित वीर्य-अज्ञानी को बालवीर्य होने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है और ज्ञानी को पंडितवीर्य होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । -
धर्मसार
साधु जीवन को दोषमुक्त बनाने के लिए “मुनि को बैराग्य-विवेक आदि गुणों को धारण करते हुए गुरुसेवा करनी चाहिए, ऐसी अनेक दोष मुक्त और दोषयुक्त प्रवृत्ति का निर्देश करकें धर्म स्वरुप, धर्म प्राप्ति का उपाय आदि मार्गदर्शन दिया गया है । -
समाधि
इस अध्ययन में समाधान, संतोष और संतोषवृत्ति को ही सच्ची समाधि स्वरुप बताया है । -
मार्ग
इस अध्ययन में भव सागर को पार उतरने में जिस मार्ग का आलंबन श्रेयस्कर है ऐसे रत्लत्रयी के मार्ग का वर्णन किया है । -
समगसरण
इस अध्ययन में समवसरण का वर्णन कर उसे बाद स्थान बताया है । षडदर्शन का संक्षेप में बर्णण कर उन मिथ्यादर्शनों के कुमत को हराकर सत्य मत की स्थापना की है । -
यथातश्य
इस अध्ययन में धर्म के यथार्थ स्वरुप का वर्णन होने से इसका नाम यथातथ्य अध्ययन है । इसमें साधक आत्मा के गुण-दोधों, साधना में बाधक-मद स्थान और भगवान महावीर के संसारी पक्ष में जमाई ऐसे जमाली का वर्णन किया है । -
ग्रंथ
इस अध्ययन में ग्रहण शिक्षा, आसेवन शिक्षा, उपदेशक के गुण आदि का वर्णन करके समाधि के इच्छुक शिष्य को आजीवन गुरु की निश्रा में रहने का उपदेश दिया है । इस अध्ययन में गुर्कुलवास के लाभ और गुरुकुलवास के त्याग के नुकसान बताये है । -
यमकीय
घाती कर्म के क्षय से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । घाती कर्म का क्षय करने के लिए भावनामार्ग सर्व श्रेष्ठ आलंबन है । -
गाथा
गद्य शैली में छह सूत्र द्वारा इस अध्ययन में मुनि जीवन का बर्णन कर उनकी प्रशंसा की गई है ।
दूसरे श्रुतस्कंध के 7 अध्ययन
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पुंडरीक
इस अध्ययन में उत्तमपुरुष को पुंडरीक की उपमा दी है । जैसे कमल में पुंडकीक कमल सबसे श्रेष्ठ है वैसे उत्तम पुरुष जो क्षायिक समकिती, यधाख्यात चारित्री, अनाशंसी और शुक्ल ध्यानी सर्व श्रेष्ठ है । इससे अतिरिक्त “जगत्कर्ता ईश्वर है’ ऐसी मान्यता और नियतिवाद का खंडन किया गया है । -
क्रिया स्थान
इस अध्ययन में द्रव्य क्रिया का महत्त्त्बताकर क्रिया के 13 स्थान बताए है जिनमें 12 स्थान कर्म बंधक कारण और अंतिम स्थान कर्म निर्जरा का कारण बताया है । -
आहार परिज्ञा
इस अध्ययन में आहार का वर्णन कर निर्दोष आहार की व्याख्या बताई है तथा जीवों की उत्पत्ति स्थान-योनि और जीवन जीने में उपयोगी आह्मर आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है । -
प्रत्याख्यान क्रिया
11 गद्यात्मक सूत्र द्वारा इस अध्ययन में प्रत्याख्यान का महत्त्व बताया है । पापस्थानकों के प्रत्याख्यान से कर्म निर्जरा और प्रत्याख्यान के अभाव में कर्म का बंध होता है । -
अनाचार श्रुत
इसे अध्ययन में अनाचार के त्याग का उपदेश दिया है । एकांतवाद और अनेकांतवाद की भेद रेखा बताई है । इस अध्ययन का दूसरा नाम अणगार श्रुत भी है । -
आर्द्रकीय
इस अध्ययन में अनार्यभूमि में जन्मे आर्द्रकुमार का वर्णन है । उनका गोशाला, त्रिदंडी और हरिततापस के साथ में हुए बाद-संवाद का रोमांचक वर्णन है । महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी द्वारा रचित 350 गाथा के स्तवन में इस अध्ययन को साक्षी दी गई है । -
नालंदीय
41 सूत्र द्वारा इस अध्ययन में राजगृही नगरी के नालंदापाडे में गणधर श्री गौतमस्वामीजी एवं पार्शनाथ प्रभु की परंपरा में हुए उदक श्रमण का वार्तालाप है । इन प्रश्नोत्तार में श्रावक जीवन का वर्णन है ।